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अ॒स्मा इदु॒ त्वष्टा॑ तक्ष॒द्वज्रं॒ स्वप॑स्तमं स्व॒र्यं१॒॑ रणा॑य। वृ॒त्रस्य॑ चिद्वि॒दद्येन॒ मर्म॑ तु॒जन्नीशा॑नस्तुज॒ता कि॑ये॒धाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā id u tvaṣṭā takṣad vajraṁ svapastamaṁ svaryaṁ raṇāya | vṛtrasya cid vidad yena marma tujann īśānas tujatā kiyedhāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मै। इत्। ऊँ॒ इति॑। त्वष्टा॑। त॒क्ष॒त्। वज्र॑म्। स्वपः॑ऽतमम्। स्व॒र्य॑म्। रणा॑य। वृ॒त्रस्य॑। चि॒त्। वि॒दत्। येन॑। मर्म॑। तु॒जन्। ईशा॑नः। तु॒ज॒ता। कि॒ये॒धाः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:28» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि जो (त्वष्टा) प्रकाश करने (ईशानः) समर्थ (कियेधाः) कितनों को धारण करनेवाला शत्रुओं को (तुजन्) मारता हुआ (वृत्रस्य) मेघ के ऊपर अपने किरणों को छोड़ता (विदत्) प्राप्त होते हुए सूर्य के समान (स्वर्यम्) सुख के हेतु (स्वपस्तमम्) अतिशय करके उत्तम कर्मों के उत्पन्न करनेवाले (वज्रम्) किरणसमूह को (तक्षत्) छेदन करते हुए सूर्य के (चित्) समान (अस्मै) इस (रणाय) सङ्ग्राम के वास्ते जिस (मर्म) जीवननिमित्त स्थान को (तुजता) काटते हुए (येन) जिस वज्र से शत्रुओं को जीतता है, (इदु) उसी को सभा आदि का अध्यक्ष करना चाहिये ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अपने प्रताप से मेघ को छिन्न-भिन्न कर भूमि में जल को गिरा के सबको सुखी करता है, वैसे ही सभा आदि का अध्यक्ष विद्या, विनय वा शस्त्र-अस्त्रों के सीखने-सिखाने से युद्धों में कुशल सेना को सिद्ध कर, शत्रुओं को जीत कर, सब प्राणियों को आनन्दित किया करे ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

मनुष्यैर्यस्त्वष्टेशानः कियेधाः स्वयं शत्रून् तुजन् वृत्रस्य मेघस्योपरि वज्रं स्वकिरणान् क्षिपन् विदत् स्वर्यं स्वपस्तमं तक्षत्सूर्यश्चिदिवास्मै रणाय मर्म तुजता येन वज्रेण शत्रून् विजयते स इदु सभाद्यध्यक्षत्वे योग्य इति वेद्यम् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) उक्ताय (इत्) एव (उ) वितर्के (त्वष्टा) प्रकाशयिता (तक्षत्) तनूकरोति (वज्रम्) किरणसमूहं प्रहृत्य (स्वपस्तमम्) अतिशयेन शोभनान्यपांसि कर्माणि यस्मात्तम् (स्वर्यम्) स्वः सुखे साधुस्तम् (रणाय) युद्धाय। रण इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (वृत्रस्य) मेघस्य (चित्) इव (विदत्) प्राप्नुवन् (येन) वज्रेण (मर्म) जीवननिमित्तम् (तुजन्) हिंसन्। अत्र शपो लुक्। (ईशानः) समर्थः (तुजता) छेदकेन वज्रेण (कियेधाः) यः कियतो धरति सः। अत्र पृषोदरा० इति तस्थान इकारः ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा सविता स्वप्रतापेन मेघं छित्वा भूमौ निपात्य जलं विस्तार्य सुखयति तथा सभाद्यध्यक्षो विद्याविनयादिना शस्त्रास्त्रशिक्षया युद्धेषु कुशलां सेनां सम्पाद्य शत्रून् जित्वा सर्वान् प्राणिन आनन्दयेत् ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य स्वतःच्या प्रभावाने मेघाला विदीर्ण करून जल भूमीवर पाडतो व सर्वांना सुखी करतो तसेच सभाध्यक्षाने विद्या व विनय याद्वारे शस्त्र-अस्त्राचे शिक्षण देऊन युद्धात कुशल सेना सिद्ध ठेवावी व शत्रूंना जिंकून सर्व प्राण्यांना आनंदित करावे. ॥ ६ ॥